मंगलवार, 3 नवंबर 2009

घायल मन की व्यथा


मैं शब्दों की क्रांति ज्वाल हूँ ,वर्तमान को गाऊँगा
जिस दिन मेरी आग बुझेगी ,उस दिन मैं मर जाऊँगा
इसीलिए मैं इन्कलाब के स्वर की एक निशानी हूँ
गाते -गाते अंगारा हूँ ,लिखते -लिखते पानी हूँ !!

क्या ये देश उन्ही का है जो युद्धों में मर जाते हैं
अपना खून बहाकर टीका सरहद पर कर जाते है
ऐसा युद्ध वतन के खातिर सबको लड़ना पड़ता है
संकट की घड़ियों में सबको सैनिक बनना पड़ता है
जो भी कौम वतन के खातिर मरने को तैयार नही
उसकी संतति को आजादी जीने का अधिकार नहीं !!

किसके कितने लाल सलोनों सीमा पर छिन जाते है
गुरु गोविन्द जी के बेटों दीवारों में चुन जाते है
मंगल पांडे आजादी का परवाना हो जाता है
उधम दायर से बदले को भी दीवाना हो जाता है
झांसी की रानी लड़कर राजधानी मितवा देती है
पन्ना धाय वफादारी में बेटा कटवा देती है
घास -फूस की रोटी खाकर महाराणा नही लड़ थे क्या ?
वंदा वैरागी के तन पर हाथी नही चढ़े थे क्या ?
ये गाथा उनको सूरज की लाली में रख देती है
हाड़ी रानी शीश काटकर थाली में रख देती है !!

अर्जून मछली की आँखों पर तीर चलना चूक गए
मुट्ठी भर जुगनू सूरज के कलश पर भी थूक गए
जब सिंहासन का राजा ही कायर दिखने लगता है
तो पूरा मौसम हत्यारा दायर दिखने लगता है
आख़िर डरते- डरते दुनिया से क्या ले लेंगे हम
कोई दिल्ली मांगेगा तो क्या दिल्ली दे देंगे हम !!

दिल्लीवालों अपने दिल को बुद्ध करो या क्रुद्ध करो
घर में छुपे हुए गद्दारों से पहले युद्ध करो
खुद्दारी ललकार रही है गीता का दर्शन पढ़ लो
जो अजगर फुंकर रहा है फ़ौरन उसका सर कुचलो
सेना को अधिकार सौंप दो और चुनोती बीस दिन की
पहले दिन ही गोला दागो नालकुंद पर रावन की
नक्सली नरसंहारों का गिन -गिनकर उत्तर मांगो
जो नक्सली जेलों में है सबको शूली पर टांगो
अर्जुन के गांडीव धनुष की प्रत्य्न्जा चढ़ जाने दो
नक्सलियों के सीने में बारूदें फट जाने दो
inke पक्षधरों पर अब बादल फट जाने दो
गद्दारों का भी अब मस्तक कट जाने दो !!!!

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