शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

पर ......उग आती हैं बेटियाँ


बोये जाते हैं बेटे
ओर उग आती हैं बेटियाँ
खाद पानी बेटों में
और लहलहाती हैं बेटियाँ
एवरेस्ट की ऊँचाइयों तक ठेले जाते हैं बेटे
ओर चढ़ जाती हैं बेटियाँ
रुलाते हैं बेटे
और रोती हैं बेटियाँ
कई तरह गिरते और गिराते हैं बेटे
और संभाल लेती हैं बेटियाँ
सुख के स्वप्न दिखाते हैं बेटे
जीवन का यथार्थ होती है बेटियाँ
जीवन तो बेटों का है
और .........मारी जाती हैं बेटियाँ .

3 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय...अब ज़माना बदल रहा है...वो दिन दूर नहीं जब बेटियों को उनका 'जीने का हक़' मिलेगा...

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  2. बेटियों के लिए कुछ अच्छे, कुछ कडवे भाव... सुन्दर रचना...

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